शायद आज जब हम आपको यह बताने जा रहे हैं, इससे पहले आपने कभी नहीं सोचा होगा कि बार-बार पलकें झपकाने के बावजूद हमारी आंखें कैसे लगातार देखती रहती हैं. वो भी तब जब हमारी आंखें हर एक मिनट में 15 से 20 बार झपकती हैं.
शायद यह सोचकर आपको हैरत हो रही होगी कि वाकई जब पलक झपकती है तब आंखों के सामने अंधेरा हो जाता है लेकिन दिन भर करीब 21,000 या इससे भी ज्यादा बार पलकें झपकाने के दौरान हमें यह क्यों महसूस नहीं होता.
चलिए आपको इस हैरानी से हम निजात दिलाते हैं. सबसे पहले तो यह जान लें कि जब भी हम पलकें झपकाते हैं हमारी आंखों के अंदर का हिस्सा (पुतलियां) पलकों के अंदर छिप जाता है और जैसे ही हम आंखें खोलते हैं यह बाहर आ जाता है.
यह खिड़की के सामने बिल्कुल काला और पूरा घेरने लायक पर्दा डालने जैसा है या फिर कैमरे के लेंस के आगे कैप लगाने जैसा. यानी जैसे ही कैमरे के लेंस के आगे कैप लगाएं या फिर कमरे की खिड़की का पर्दा बंद करें, अंधेरा हो जाता है और पर्दा हटाते ही वापस रोशनी आ जाती है.
ठीक इसी तरह आंखों की पलकें भी एक पर्दे की तरह काम करती हैं और बंद होने पर बाहर की चीजों पर पड़ने वाली रोशनी को आंखों की पुतलियों के भीतर जाने से रोकती हैं जबकि खोलने पर उल्टा हो जाता है. और हम जो भी देखते हैं वो उन चीजों पर पड़ने वाली रोशनी के आंखों पर होने वाले रिफ्लेक्शन के फलस्वरूप होता है.
करेंट बायोलॉजी जर्नल में छपे शोध के मुताबिक शोधकर्ता भी इस पहेली से हैरान थे कि क्यों दिन में हजारों बार पलकें झपकाने के बावजूद आंखें लगातार चीजों को देखती रहती हैं. लेकिन सिंगापुर और अमेरिकी यूनिवर्सिटी के एक संयुक्त शोध में वैज्ञानिकों ने इस बात का पता लगाया.
शोधकर्ताओं ने 12 वयस्कों को एक अंधेरे कमरे में बिठाया और उन्हें सामने रखी स्क्रीन पर ही लगातार देखने को कहा. स्क्रीन पर बना एक डॉट (बिंदु) हर बार आंखों की पलकें झपकते ही एक सेंटीमीटर दाहिने खिसक जाता था.
इस दौरान स्क्रीन पर नजर गड़ाए सभी वयस्कों की नजरों की गतिविधियों को इंफ्रारेड कैमरे से ट्रैक किया गया. शोधकर्ता दल के प्रमुख गेरिट मौस ने मजाक में इस शोध को “जीवन का सबसे ज्यादा बोरियत भरा प्रयोग” करार दिया.
इस प्रयोग के दौरान प्रतिभागियों ने आंखों की गतिविधियों पर ध्यान नहीं दिया लेकिन कैमरे ने इन मूवमेंट्स को पकड़ लिया. 35 बार पलकें झपकाने के बाद प्रतिभागियों की आंखें स्वतः (ऑटोमैटिकली) ही उस स्थान पर केंद्रित हो जाती थी जहां पर वह डॉट आने की संभावना थी और ऐसा मस्तिष्क के ऑक्युलोमोटर मैकेनिज्म की वजह से होता था.
साधारण शब्दों में कहें तो जब तक आंखों की पलकें बंद होकर खुलती है यानी झपकती हैं, मस्तिष्क खुद से यह अंदाजा लगा लेता है कि अब आंख को कहां देखना है.
शोधकर्ताओं का कहना है कि स्क्रीन पर बने डॉट पर नजर रखने की ही तरह हमारा मस्तिष्क हमें लगातार दुनिया को साफ और स्पष्ट देखने के लिए हर पलक झपकने के बाद आंख की स्थिति को संभावित स्थान पर केंद्रित कर देता है.
गेरिट मौस कहते हैं, “हमारी आंखों की मांसपेशियां सुस्त और अनिश्चित होती हैं इसलिए हमारी आंखें लगातार जहां उन्हें देखना चाहिए उस सही दिशा में देखती रहें, मस्तिष्क को इसके लिए लगातार सिग्नल भेजने पड़ते हैं और यह उनकी मूवमेंट को निर्धारित करता है.”
वो कहते हैं कि इस गाइडेंस सिस्टम की मदद के बिना हमारी नजरें हमें दुनिया की अस्थिर और धुंधली तस्वीर दिखाएंगी. शोध के एक अन्य सहयोगी पैट्रिक कैवेनाग कहते हैं, “हम दुनिया में कैसे गतिविधि कर रहे हैं इससे तालमेल बिठाने के लिए हमारा मस्तिष्क काफी प्रेडिक्शन (आगे देखता है) करता है.”
जाहिर है मस्तिष्क हमारी गतिविधियों के हिसाब से हमें क्या देखना है यह तय करते हुए आंखों को सिग्नल भेजकर उसी स्थान पर केंद्रित कर देता है.